नेपाल में
बढ़ते रुसूमात का सद्दे बाब
मोहम्मद
इज़्हारून्नबी हुसैनी मिस्बाही
दीने इस्लाम वह मुहज़्ज़ब और आफ़ाक़ी दीन है जिसने आम तौर पर पूरी दुनिया और ख़ास
कर मुसलमानों के सामने पैदा होने से ले कर मरने तक तमाम गोशाहा-ए-हयात के लिए
रहनुमा उसूल व क़वानीन पेश किए और उन्हें उन उसूल व ज़वाबित का पाबंद रहने की ताकीद
की । अब मुसलमान कभी अंजाने में और कभी जान बूझ कर उन उसूलों से हट कर अपना जीवन
बिताने का प्रयास करता है जिसकी वजह से समाज में तरह तरह की ख़राबियाँ और रुसूमात
का जनम होता है, फिर धीरे धीरे वह ख़राबियाँ विभिन्न एलाकों का सफर करती हैं और लोगों को अपनी
ज़ाहरी तब व ताब और रानाई की तस्वीर दिखा कर सीधे रास्ते से अलग कर देती है ।
भले ही मुल्के नेपाल में पुराने समय से इस्लाम और मुसलमानों
का वजूद है मगर मुसलमानों के हालाते ज़िंदगी देखने के बाद इस बात का अंदाज़ा लगाना
मुश्किल नहीं कि यहाँ के मुसलमान कहने को तो मुसलमान ज़रूर हैं लेकिन इस्लामी
ज़िंदगी से कोसों दूर हैं । ज़िंदगी के हर दौर और हर मोड़ पर जहालत पर मबनी बुरी
रस्में मौजूद हैं और बिला तकल्लुफ उन बुरी रस्मों को मुसलमान अदा करते हैं । नेपाल
में मुसलमानों के माहौल और समाज में उन रुसूमाते बाद के पाये जाने के विभिन्न कारण
हैं जैसे पहाड़ी नेपाल में बुद्धिस्ट और तराई नेपाल में हिन्दुओं के साथ मुश्तरका
मुआशरत और उनके तिहवारों वग़ैरा में शिरकत, नए धर्मों का वजूद और उनकी आवाज़ पर आँखें बंद करके चल पड़ना, दीनी अहकाम से लाइल्मी
(अज्ञानता) चाहे शिक्षा की कमी के कारण से या माहौल की नासाज़गारी के कारण से, उलमा-ए-किराम की कमी वग़ैरा
।
नेपाल के बीते तीस पैंतीस सालों के इतिहास पढ़ कर देखिये तो
यह साफ नज़र आयेगा कि नेपाली मुसलमान शिक्षा से बहुत हद तक दूर थे चाहे धार्मिक
शिक्षा हो या सांसारिक । लोगों को पढ़ना लिखना नहीं आता था और दीन व धर्म से दूरी
का यह हाल था कि मुसलमान अपने घरों में मूर्तिया रखते थे और उनकी पूजा करते थे, औरतें जब महवारी में
होतीं तो पूरा घर नापाक माना जाता और जब वह पाक होतीं तो पूरा घर ज़रूर धोया जाता वग़ैरा
।
मुल्के नेपाल में बुरी रस्मों और ख़राबियों का जाइज़ा लें तो
यह बात साफ हो जाती है कि यहाँ के माहौल में तीन प्रकार की ख़राबियाँ और रुसूमाते
बाद का चलन है :
पहली वह रस्में जो शरीअत में नाजाइज़ हैं, दूसरी वह रस्में जो
शरीअत में तो नजाइज़ नहीं मगर वह किसी नजाइज़ या हराम काम का कारण बनती हैं जैसे
नेपाल में विदाई (बिदाई) का एक ख़ुशकुन तरीक़ा राइज है । विदाई में होता यह है कि
शादी ब्याह, अक़ीक़ा जैसे अलग अलग ख़ुशी के अवसर पर घर आए मेहमान जब जाने लगते हैं तो उस समय
कुर्ता पाजामा या पैंट शर्ट या लूँगी आदि बतौर तौहफा (विदाई) दिये जाते हैं, और उसके जवाज़ में किसी
को कोई आपत्ति भी नहीं । अलबत्ता अब आम तौर पर यह होता है कि लोगों के पास उसी समय
विदाई के कपड़े ख़रीदने के लिए पैसे नहीं होते और “लोग क्या कहेंगे” का डर भी होता
है तो लोगों के ताने और अपमान से बचने के लिए सुदी पैसे क़र्ज़ लिए जाते हैं । जो
बहरहाल एक हराम काम है । तीसरी ख़राबी अभी की पैदावार है, और वह है असलाफ़ बेज़ारी ।
आज कल नेपाल में कुछ उलमा ने तलबा और आवाम को यह ज़ेहन देना शुरू कर दिया है कि हम
से पहले उलमा ने नेपला में कुछ भी नहीं किया, उन के क़ाबिले ज़िक्र कारनामे नहीं हैं, उन्होंने कोई किताब
नहीं लिखी । ऐसी सोच फैलाने वाले उलमा की बारगाह में बस इतना ही कहा जा सकता है कि
नेपाली मुसलमानो में इल्म की शमा रौशन हुये कुछ ज़ियादा साल नहीं गुज़रे हैं । और
जिस समय में असलाफ़ किराम मौजूद थे वह जहालत से पुर था इस लिए उन्हों ने वक़्त, हालात और माहौल का
लिहाज़ करते हुये तब्लीग़ी दौरे किए और अमली पेश क़दमी की । हाँ ! तसनीफि (लिखने का)
काम नहीं किए तो उसकी ख़ास ज़रूरत भी नहीं थी क्यूँकि जब लोगों के अंदर इल्म व शुऊर
का नूर और शिक्षित ही नहीं तो किताबें किसके लिय लिखी जातीं ?
ऐसे पुर फेतन व पुर आशोब माहौल में बढ़ते सैलाब और बिलाख़ेज़
तूफान को रोकने के लिए असलाफ़ किराम ने अपना फर्ज़े मंसबी समझते हुये मुख़्तलिफ़
एलाक़ों का दौरा किया और जहां जहां पहुँच सकते थे पहुँच कर दावत व इस्लाह का काम
किया । और मौजूदा वक़्त में उलमा-ए-किराम ने अपनी हैसियत व क़ुदरत और माहौल के
अनुसार अमर बिल मारूफ़ व नही अनिल मुंकर (नेकी की दावत और बुराई से रोकने का काम)
और समाज सुधार का कर्तव्य निभाया और अब भी इस्लाहे मुआशरा का फरीज़ा अंजाम दे रहे
हैं ।
इन अक़ाइद व रुसूमात के सद्दे बाब और रोक थाम का सब से पहला
और मज़बूत हल इल्मे दीन और अहकामे शरईया की दावत व तबलीग़ और तरवीज व इशाअत है । क्यूँकि
जिस भी बुरे रस्म व रिवाज का चलन जहां कहीं भी है ग़ौर से देखें तो पता चल जाएगा कि
यह सब इल्म और शिक्षा की कमी का नतीजा है और शरीअत पर अमल ना करने का कारण है । इस
लिए सब से पहले ज़रूरी है कि इल्मे दीन फैलाया जाए, इस से आवाम को अरासता किया जाए और अहले एलक़ा और देश को
अहकामे शरीइया के सेज से सजाया जाए । फिर देखिये एलक़ा हो या मुल्क, कैसे कारे ख़ैर (अच्छे
काम) और रुसूमाते सालिहा (अच्छे और फाइदे मंद तौर तरीक़े) से सर सब्ज़ व शादाब और
हराभरा नज़र आता है ।
इन रुसूमाते बद के रोक थाम में हमारे उलमा-ए-किराम निहायत
अहम किरदार अदा कर सकते हैं । वह यह कि वह अपनी मजलिसों में इस पर ख़ास ध्यान दें
कि जिस एलाक़ा में अभी वह मौजूद हैं वहाँ किस तरह के रस्म व रिवाज का चलन है जो
इस्लाम और मुसलमानों की बदनामी का कारण है फिर इसी अनुसार अवाम व ख़वास को इन रस्म
व रिवाज की तरफ ध्यान दिलाएँ और उस से बचने के तरेक़े बताएं, इन के बारे में शरीअत
के अहकाम समझाएँ, इनके नुक़्सानात से लोगों को ख़बरदार करें और फिर इनकी जगह इस्लाम और शरीअत के
अनुसार अच्छे रस्मों की जानिब रहनुमाई फरमाएं ।
इन बुरे रुसूमात से आवाम को बचाने में हमारे अइम्मा, मुक़र्रेरीन और ख़ुतबा का
भी एक अहम और नुमायां किरदार हो सकता है ।
बशरते कि वह जुमा और जलसों में रिवायती और जोशीली तक़रीरों ख़िताब की जगह एलाक़ा में
नासूर रुसूमाते बद का संजीदगी व मतान्त से रद करें और अवामे अहले सुन्नत के सामने
उन से बचने की तदाबीर बयान करें और फिर दूबारा जब उस एलाक़े मे जाएँ उस का जाइज़ा लें
कि जिन रुसूम की तरदीद उन्हों ने साबिक़ा महफिल में की थी उस का कितना असर रहा और फिर
उसी एतेबार से दुबारा कोशिश करें तो ज़रूर
ज़रूर आज नही तो कल सही इन रुसूमे बद का ख़ातिमा हो जाएगा और एलाक़ा इस्लाम व अहले
इस्लाम के लिए अमन व सुकून का गहवारा बन जाएगा ।
ऊपर के प्रस्ताव तो अहल इल्म हज़रात के लिए है अब रह गई बात
अवामे अहले सुन्नत कि तो उनका भी इस रुसूमात से छुटकारा दिलाने में अहमा किरदार
होगा वह यह कि जब उलमा-ए-अहले सुन्नत कि ज़ियारत करें चाहे एलाक़ा के हों या बाहर के
तो उनसे अक़ीदत से मिलें और फिर जो रस्में उन को ग़लत लगे उनकी मालूमात हासिल करें
अगर सच्च में ग़लत हों तो उस से बचने के लिए पलान बनवाएँ और फिर उसी के अनुसार चलें
ना यह कि मालूमात लें और पलान भी बनवाएँ फिर उन मेहनत को पीठ पीछे डाल दें फिर तो
हाल वही होगा कि जहां से चले थे वहीं पहुंचे ।
एक ज़िम्मेदारी आवाम की भी है कि जब जब वह किसी बुरे रस्म को
देखें तो अगर होसके तो उलमा को दावत देकर बुलवायेँ और महफिल मुंअक़िद करें और अतराफ़
के लोगों को भी बुलाएँ और फिर उसी बुरे रस्म के ख़िलाफ़ और रोक थाम के लिए तक़रीर
करवाएँ क्यूँकि अकेला पूछ लेने से इंसान ख़ुद तो बच सकता है लेकिन उस रस्मे बद के
करने वाले दूसरे लोगों को नही बचा सकता ।
लिखने को तो और भी लिखा जा सकता है लेकिन इन चंद बातों पर
ही अमल हो जाए तो शायद एलाक़ा और अहले एलाक़ा और मुल्क व अहले मुल्क इन रुसूमाते बद
से निजात पासकते हैं और सही मानों में एक इस्लामी समाज तशकील पासकता है ।
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