उस्वए रसूल ﷺ मुकम्मल ज़ाब्ता-ए-हयात
मुहम्मद अताउन्नबी
हुसैनी मिस्बाही
لَقَدْ
كَانَ لَكُمْ فِيْ رَسُوْلِ اللّٰهِ اُسْوَةٌ حَسَنَةٌ.
तर्जुमा
कंज़ुल ईमान बेशक तुम्हें रसूलुल्लाह की पैरवी
बेहतर है ।
जब रसूले
मक़बूल ﷺ की पैरवी बेहतर है तो
दुनिया व आख़िरत की भलाई के लिए उसे अपनी अमली ज़िन्दगी का हिस्सा बनाना निहायत ही ज़रूरी
है । लेकिन हम उसे अमली जामा उसी वक़्त पहना सकते हैं जब हम उस्वए रसूल ﷺ से वाकिफ़ होंगे इस लिए एक इंसान को अपनी हयात में जिस जिस हैसियत
से लम्हात गुज़ारने का मौक़ा मोयस्सर होता है या मोयस्सर होने का इम्कान है उन जिहत को
न्यूके क़लम किया जाता है ताकि उस्वए रसूल ﷺ से आशनाई के बाद उस से अपनी हयात को गुलज़ार बनाया जासके ।
बेटा और उस्वए रसूल ﷺ : इंसान जब इस दुनिया में अपनी आँखें खोलता है तो सब से पहले उसे
एक बेटे की हैसियत हासिल होती है और एक कामयाब औलाद वही है जिसने वालिदैन की ख़िदमत
करते हुए रज़ा-ए-मौला हासिल की । जैसाकि नबी करीम ﷺ फरमाते हैं : رَغِم
أَنف مَنْ أَدرْكَ أَبَويْهِ عِنْدَ الْكِبرِ أَحدُهُمَا أَوْ كِلاهُما فَلمْ يدْخلِ
الجَنَّةَ
तर्जुमा
: उस शख़्स की नाक ख़ाक आलूद हो (यानी बरबाद हो) जिसने अपने वालिदैन से एक या दोनों को
बुढ़ापे में पाया (फिर भी ख़िदमत करके) जन्नत में दाख़िल ना होसका ।
भाई और उस्वए रसूल ﷺ : बेटे के
बाद इंसान की एक ज़िन्दगी भाई की हैसियत से गुज़रती है । दूसरी अक़वाम में मुमकिन है कि
किसी का कोई भाई नहो लेकिन मुसलमान कोई भी हो रिश्ता-ए-उखूवत से
महरूम नहीं क्योंकि नबी करीम ﷺ ने मुसलमानों को वह नुस्ख़ा-ए-कीमिया
अता फरमा दिया है कि कोई भी मुसलमान सिफ़ते उखूवत से महरूम नहीं । वह
नुस्ख़ा-ए-कीमिया क्या है तो मोलाहिज़ा फरमाएँ :
الْمُسْلِمُ أَخُو الْمُسْلِمِ لاَ
يَظْلِمُهُ ، وَلاَ يُسْلِمُهُ ، وَمَنْ كَانَ فِي حَاجَةِ أَخِيهِ كَانَ اللَّهُ
فِي حَاجَتِهِ ، وَمَنْ فَرَّجَ عَنْ مُسْلِمٍ كُرْبَةً فَرَّجَ اللَّهُ عَنْهُ كُرْبَةً مِنْ
كُرُبَاتِ يَوْمِ الْقِيَامَةِ ، وَمَنْ سَتَرَ مُسْلِمًا سَتَرَهُ اللَّهُ يَوْمَ
الْقِيَامَةِ
तर्जुमा:
एक मुसलमान दूसरे मुसलमान का भाई है, पस उस
पर ज़ुल्म नाकरे और ना ज़ुल्म होने दे । जो शख़्स अपने भाई की ज़रूरत पूरी करे,
अल्लाह तआला उसकी ज़रूरत पूरी करेगा । जो शख़्श किसी मुसलमान की किसी एक मुसीबत को
दूर करे, अल्लाह तआला उसकी क़यामत की मुसीबतों में से एक बड़ी मुसीबत
को दूर फरमाएगा । और जो श्ख़्श किसी मुसलमान के ऐब को छुपाए अल्लाह तआला क़यामत में
उसके ऐब छुपाएगा ।
शौहर और उस्वए रसूल ﷺ : एक
मुसलमान के लिए अपनी ज़िंदगी में एक ऐसा मोड़ भी आता है कि जब वह एक अजनबिया से
“क़बिलतो” का इक़रार कर लेने क बाद “मन तू शुदम तू मन शुदी” के मिस्दाक़ हो जाता है ।
उस रिश्ते से मुन्सलिक होने वाले मर्द को शौहर कहते हैं । एक शौहर को अपनी बीवी के
साथ कैसा बर्तावो करना चाहिए ? उस्वए रसूल ﷺ कितनी अच्छी
रहनुमाई कर रहा है । उम्मुल मोमिनीन सैईदा आईशा सिद्दीक़ा फरमाती हैं :
أَنَّ رَسُولَ اللهِ ﷺ كَانَ يَغْتَسِلُ وَأَنَا مِنْ إِنَاءٍ وَاحِدٍ
तर्जुमा:
अल्लाह के रसूल ﷺ और मैं एक बर्तन में ग़ुस्ल किया करते ।
रिश्ता-ए-इज़्दवाज
को मुस्तहकम करने वाले इस अंदाज़ को भी ज़रा मुलाहेज़ा कीजिये । उम्मुल मोमिनीन सैईदा
आईशा सिद्दीक़ा फरमाती हैं :
لَقَدْ رَأَيْتُنِي
أُنَازِعُ رَسُولَ اللهِ ﷺ الإِنَاءَ أَغْتَسِلُ
أَنَا وَهُوَ مِنْهُ
तर्जुमा:
मैंने ख़ुद को देखा कि मैं रसूलुल्लाह ﷺ स बर्तन के सिलसिले में खिंचातानी कर रही हूँ, मैं
और आप दोनों उसी से ग़ुस्ल कर रहे थे ।
बाप और उस्वए रसूल ﷺ : इज़्दवाजी ज़िंदगी से मुंसलिक होजाने के बाद जब
गुल्शने हयात में फूल खिलते हैं तो इंसान की हैसियत बाप की हो जाती है और एक
क़ाबिले तक़लीद बाप होने के लिए हमारा अपनी औलाद क साथ कैसा सुलूक होना चाहिए और इस
तअल्लुक़ से उस्वए हसना हमारी क्या रहनुमाई करता है मुलाहेज़ा फरमाएँ :
قَبَّلَ رَسُولُ اللهِ ﷺ
الْحَسَنَ بْنَ عَلِيٍّ وَعِنْدَهُ الأَقْرَعُ بْنُ حَابِسٍ التَّمِيمِيُّ
جَالِسًا فَقَالَ الأَقْرَعُ إِنَّ لِي عَشَرَةً مِنَ الْوَلَدِ مَا قَبَّلْتُ
مِنْهُمْ أَحَدًا فَنَظَرَ إِلَيْهِ رَسُولُ اللهِ ﷺ
ثُمَّ قَالَ مَنْ لاَ يَرْحَمُ لاَ يُرْحَمُ
तर्जुमा:
रसूलुल्लाह ﷺ ने हसन बिन अली को बोसा दिया । नबी करीम ﷺ के पास अक़रअ बिन हाबिस बैठे हुये थे । हज़रत अक़रअ ने उस पर कहा कि
मेरे दस लड़के हैं और मैंनें उनमें से किसी को बोसा नहीं दिया । नबी करीम ﷺ ने उनकी तरफ देखा और फरमाया कि जो अल्लाह की मख़लूक़ पर रहम
नहीं करता उस पर भी रहम नहीं किया जाता ।
पड़ोसी और उस्वए रसूल ﷺ
: एक इंसान जहां कहीं भी रहे किसी ना किसी के पड़ोस में होता
है जो उसके पड़ोसी होते हैं अगरचे उनका हम से बज़ाहिर कोई तअल्लुक़ नहीं होता लेकिन नबी
करीम ﷺ ने सिर्फ पड़ोस में
होने के सबब उस से एक तरह का रिश्ता क़ाइम फरमा दिया और उसके साथ हूसने सुलूक और
उसकी मदद करने की ताकीद व तालीम फरमाई, आप ﷺ फरमाते हैं :
وَاللَّهِ لَا يُؤْمِنُ وَاللَّهِ لَا يُؤْمِنُ وَاللَّهِ لَا
يُؤْمِنُ " قِيلَ: وَمَنْ يَا رَسُولَ اللَّهِ؟ قَالَ: الَّذِي لَا يَأْمَنُ
جَارُهُ بَوَايِقَهُ
तर्जुमा:
अल्लाह की क़सम वह मोमिन नहीं, अल्लाह की क़सम वह मोमिन नहीं, अल्लाह
की क़सम वह मोमिन नहीं, अर्ज़ किया गया कौन ? आप ﷺ ने फरमाया : वह
शख़्श जिसकी शरारतों स उसका पड़ोसी महफ़ूज़ नहीं ।
मेहमान व मेज़बान और उस्वए रसूल ﷺ
: हर इंसान की ज़िंदगी में ऐसे मवाक़े आते रहते हैं कि वह कभी
मेहमान बनता है और कभी मेज़बान । इन दोनों हालातों में अख़्लाक़ व मोहब्बत और ज़र्फ की
उसअत बक़दरे हैसियत लाज़मी है । हुज़ूर ﷺ के उस्वए हसना में मेज़बान और मेहमान दोनों की हैसियत की
मारफ़त और दोनों की तरबियत की भी रहनुमाई मिलती है । जैसाकि आप ﷺ फरमाते हैं :
مَنْ كَانَ يُؤْمِنُ بِاللَّهِ وَالْيَوْمِ الْآخِرِ
فَلْيُكْرِمْ ضَيْفَهُ جَائِزَتُهُ يَوْمٌ وَلَيْلَةٌ وَالضِّيَافَةُ ثَلَاثَةُ
أَيَّامٍ، فَمَا بَعْدَ ذَلِكَ فَهُوَ صَدَقَةٌ، وَلَا يَحِلُّ لَهُ أَنْ يَثْوِيَ
عِنْدَهُ حَتَّى يُحْرِجَهُ
तर्जुमा
: जो शख़्श अल्लाह और आख़िरत क दिन पर ईमान रखता हो उसे अपने मेहमान की इज़्ज़त करनी
चाहिए । उसकी ख़ातिरदारी बस एक दिन और रात की है, मेहमानी
तीन दिन और रातों की, उसके बाद जो हो वह सदका है और मेहमान के लिए जाइज़ नहीं कि
वह अपने मेज़बान के पास इतने दिन ठहर जाए कि उसे तंग कर डाले ।
हुक़ूक़ुल इबाद और उस्वए रसूल ﷺ
: हर इंसान पर मुख़्तलिफ़ हैसियतों से मुख़्तलिफ़ हुक़ूक़ आइद होते
हैं जिनकी अदाईगी एक सालेह मोआशरा की तशकील के लिए इतना ही ज़रूरी है जितना इंसान
के ज़िंदा रहने के लिए खाना और पीना ज़रूरी है । और उन हुक़ूक़ में हुक़ूक़ुल इबाद की अदाईगी तो निहायत ज़रूरी है
वरना जब तक साहिबे हक़ माफ नाकरे माफी नहीं बल्कि उसका बदला आख़िरत में भी चुकाना पड़
सकता है जैसकि आप ﷺ फरमाते हैं :
الدَّوَاوِينُ عِنْدَ اللهِ عَزَّ
وَجَلَّ ثَلاَثَةٌ : دِيوَانٌ لاَ يَعْبَأُ اللَّهُ بِهِ شَيْئًا ، وَدِيوَانٌ لاَ
يَتْرُكُ اللَّهُ مِنْهُ شَيْئًا ، وَدِيوَانٌ لاَ يَغْفِرُهُ اللَّهُ ، فَأَمَّا
الدِّيوَانُ الَّذِي لاَ يَغْفِرُهُ اللَّهُ : فَالشِّرْكُ بِاللَّهِ، ... وَأَمَّا الدِّيوَانُ الَّذِي لاَ يَعْبَأُ
اللَّهُ بِهِ شَيْئًا : فَظُلْمُ الْعَبْدِ نَفْسَهُ فِيمَا بَيْنَهُ وَبَيْنَ
رَبِّهِ مِنْ صَوْمِ يَوْمٍ تَرَكَهُ ، أَوْ صَلاَةٍ تَرَكَهَا ، فَإِنَّ اللَّهَ
عَزَّ وَجَلَّ يَغْفِرُ ذَلِكَ وَيَتَجَاوَزُ إِنْ شَاءَ ، وَأَمَّا الدِّيوَانُ
الَّذِي لاَ يَتْرُكُ اللَّهُ مِنْهُ شَيْئًا : فَظُلْمُ الْعِبَادِ بَعْضِهِمْ
بَعْضًا ، الْقِصَاصُ لاَ مَحَالَةَ
तर्जुमा
: अल्लाह के हुज़ूर दफ्तर तीन हैं । एक दफ्तर में से अल्लाह तआला कुछ न बख़्शेगा और
एक दफ्तर की अल्लाह तआला को कुछ परवाह नहीं और एक दफ्तर में से अल्लाह तआला कुछ न
छोड़ेगा । वह दफ्तर जिसमें माफी की कोई गुंज़ाईश नहीं वह कुफ़र व शिर्क है कि वह किसी
तरह न बख़्शा जायेगा । और वह दफ्तर जिसकी अल्लाह तआला को कुछ परवाह नहीं वह बंदे का
गुनाह है ख़ालिस अपने और अपने रब के मामले में कि किसी दिन का रोज़ा छोड़ दिया या कोई
नमाज़ तर्क करदी । अल्लाह तआला चाहे तो उसे माफ करदे और दरगुज़र फरमाए । और वह दफ्तर जिसमें से अल्लाह
तआला कुछ नछोड़ेगा वह बंदों का आपस में एक दूसरे पर ज़ुल्म है कि उसका ज़रूर बदला
होना है ।
एक कामयाब
ज़िंदगी के लिए उस्वए रसूल ﷺ से जो रहनुमाई मिलती है मुशते नमूना अज़
ख़रवारे सिर्फ चंद मिसालें ही बयान की गईं वरना यह मौज़ू एक समुन्दर है जिसका कोई
किनारा नहीं और ऐसा क्यूँ नाहो कि अल्लाह तआला ने अपने रसूल ﷺ को बनाया ही बेमिस्ल व बेमिसाल है तो उनसे
निस्बत रखने वाली कोई भी चीज़ क्यूँकर हिता-ए-तहरीर में आसकती है । अल्लाह तआला हम
इस्लामी भाईयों को उस्वए हसना को अपनी अमली ज़िंदगी में नाफ़िज़ करने की टौफ़ीक़ मरहमत
फरमाए । आमीन !
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